अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई उनके भारत आगमन के साथ ही शुरू हो गयी थी। भारत के हर हिस्से में समाज के हर वर्ग ने अपनी मातृभूमि को आजाद कराने के लिए इन विदेशी आक्राँताओं के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी। इसमें भारत के संन्यासी भी अलग नहीं थे। संन्यासी सदैव भारत मॉं की समृद्ध विरासत और संस्कृति के लिए लड़ने के लिए तैयार रहे हैं। चाहे वह 1664 में काशी विश्वनाथ मंदिर की रक्षा के लिए औरंगजेब की शक्तिशाली मुगल सेना को हराने वाले नागा साधुओं की बात हो या 1757 में अफगानों की लूट से पवित्र शहर गोकुल की रक्षा करना हो, भारत के संन्यासी हमेशा धर्म की रक्षा के लिए आगे रहे हैं।
18वीं शताब्दी में संन्यासी क्रांति इस तथ्य की एक और कड़ी है। यह आँदोलन मुख्य रूप से उत्तरी बंगाल में हुआ था। इसका नेतृत्व दशनामी संन्यासियों ने किया था, जो शैव तपस्वी कहे जाते हैं और 8वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित 10 आदेशों (दशनामी, 'दस नाम') में से एक से सम्बद्ध हैं। अरण्य, आश्रम, भारती, गिरि, पर्वत, पुरी, सरस्वती, सागर, तीर्थ और वन ये 10 आदेश हैं। प्रत्येक आदेश चार मठों (मठों) में से एक से सम्बद्ध है, जिन्हें श्री आदि शंकराचार्य ने भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में स्थापित किया था। ये हैं ज्योति (जोशी) मठ (बद्रीनाथ, उत्तराखंड में), श्रृंगेरी मठ (श्रृंगेरी, कर्नाटक राज्य), गोवर्धन मठ (पुरी, उड़ीसा राज्य) और शारदा मठ (द्वारका, गुजरात राज्य)। नागा साधुओं में धर्म की रक्षा के लिए वस्त्र नहीं पहनते, बल्कि त्रिशूल या तलवार रखते हैं। इसके अलावा उनके पास कमंडल, लोहे की छड़ी या चिमटा भी होता है।
इन संन्यासियों को ज़मींदारों और राजाओं से पैसे के साथ-साथ जमीन के रूप में दान मिलता था जिसे 'संन्यासियोतर' या 'शिवोतर' कहा जाता था, जो शैव नागा साधुओं को दी जाने वाली भूमि थी। वर्ष 1757 में प्लासी की लड़ाई जीतने के बाद, अंग्रेजों ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर पूरा कब्ज़ा कर लिया। अंग्रेजों ने उच्च कर (टैक्स) लगाने के साथ ही उनके खिलाफ विद्रोह करने वाले भारतीयों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। संन्यासी आँदोलन सबसे पहले मुख्य रूप से बंगाल और बिहार में शुरू हुआ क्योंकि ये वे इलाके थे जिन पर अंग्रेजों ने सबसे पहले कब्ज़ा किया था। इसलिए यह एक तरह का पहला आँदोलन था जिसे संन्यासियों ने अंग्रेजों के भारत में पॉंव जमाते ही शुरू कर दिया था। यह संघर्ष वर्ष 1770 से शुरू होकर 1800 तक चला जो 30 साल का समय था। वर्ष 1770 में अंग्रेजों ने बंगाल के लोगों को भूख से मरने पर मजबूर कर दिया, जिसे ‘1770 का महान बंगाल अकाल’ भी कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने टैक्स के नाम पर सारा अनाज लूटकर उसे ब्रिटेन को भेज दिया था। भारी कर ही असली कारण था कि बंगाल सूखे से बच नहीं सका क्योंकि सारा अधिशेष अनाज अंग्रेजों ने छीन लिया था। इसके कारण 10 लाख से अधिक लोगों की मौत हो गयी थी। उस समय यह संख्या स्थानीय आबादी का लगभग एक तिहाई हिस्सा था।
भारत के संन्यासियों ने इस भूमि के लोगों के साथ हो रहे अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाई और अंग्रेजों से कड़ी टक्कर लेने के लिए एकजुट हुये। उन्हें किसानों, खेतिहरों और ज़मींदारों का समर्थन प्राप्त था। ये संन्यासी अंग्रेजों पर टूट पड़े। अंगेजों को टैक्स की दर में कमी लानी पड़ी। इस बीच कई गुमनाम संन्यासियों ने मातृभूमि के लिए सर्वोच्च बलिदान दे दिया। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के आनंदमठ उपन्यास में उल्लेख किया है, 'उस समय के संन्यासी संगठित, विद्वान, मजबूत, युद्ध कला में प्रशिक्षित और अन्य अच्छे गुणों और उपलब्धियों के स्वामी थे। एक तरह से वे विद्रोही थे जो निर्दयी राजा से उसका राजस्व लूटते थे।' आनंदमठ में ब्रिटिश बटालियन के कमांडिंग ऑफिसर कैप्टन कुक और संन्यासी संती के बीच हुई बातचीत का भी उल्लेख है जिसमें कैप्टन महिला का अनादर करता है और उससे शादी करने के लिए कहने की हद तक चला जाता है। बहादुर संन्यासी जवाब देता है कि वह उस संन्यासी की पत्नी है जिसके साथ ये अंग्रेज लड़ने आए थे और अगर वह लड़ाई जीत जाता है, तो वह उसकी रखैल बन जाएगी। बाद में थॉमस और उसकी बटालियन बहादुर संन्यासियों से हार गए और वह मारा गया।
संन्यासियों ने अंग्रेजों को जो नुकसान पहुंचाया, उसका प्रमाण बंगाल के तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के पत्रों से मिलता है। 2 फरवरी 1773 को जॉर्ज कोलब्रुक को लिखे अपने पत्र में हेस्टिंग्स ने कहा कि संन्यासी जगन्नाथ की तीर्थयात्रा के लिए 3000 से 10,000 की संख्या में आते हैं। संन्यासियों द्वारा सिपाहियों को हराने और दो कमांडिंग अफसरों को हटाने के बाद उत्तरी जिलों में अंग्रेजों द्वारा एकत्र किए जाने वाले राजस्व पर असर पड़ा। इसके बाद अंग्रेजों ने प्रांतों की आंतरिक सुरक्षा में और अधिक सैनिकों को तैनात किया। (ग्लीग का संस्मरण खंड 1)
हेस्टिंग्स ने 9 मार्च 1773 को जोसिस डू प्रे को लिखे अपने पत्र में संन्यासियों की कार्यप्रणाली पर आश्चर्य व्यक्त किया। उन्होंने लिखा, 'वे न तो कपड़े पहनते हैं, न ही उनके पास कोई शहर, गाँव या परिवार है और वे हिंदुस्तान के सबसे ताकतवर और सबसे सक्रिय व्यक्ति हैं।' यह भी उल्लेख किया गया है कि 'संन्यासियों का भारत में सभी जातियों द्वारा सम्मान किया जाता था और इसलिए सख्त आदेशों और दंड के बावजूद किसी ने भी अंग्रेजों को उनके आंदोलन के बारे में कोई खुफिया जानकारी नहीं दी। संन्यासी प्रांत के बीचों-बीच कहीं से भी प्रकट हो जाते थे, जैसे वे स्वर्ग से प्रकट हुए हों।'
‘ग्रामीण बंगाल के इतिहास’ में लिखा है कि संन्यासियों ने कमांडिंग ऑफिसर कैप्टन थॉमस और उनकी लगभग पूरी बटालियन को खत्म कर दिया था। उसके बाद अगला उत्तराधिकारी अनिच्छा से उनके पद पर आसीन हुआ और उसका भी यही हश्र हुआ। इसके बाद चार और बटालियनों ने लड़ाई लड़ी, लेकिन वे भी संन्यासियों को नहीं पकड़ पाये। बंगाल में इस तरह के हमले सालाना होते थे और इससे अंग्रेजों द्वारा राजस्व संग्रह पर नकारात्मक असर पड़ता था। इन बहादुर संन्यासियों की वीरता से अंग्रेज हिल गए थे। (हंटर के ग्रामीण बंगाल के इतिहास - पृष्ठ 70 - 2)।
क्रांति के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। सिलीगुड़ी का बाउ काली शिव मंदिर कभी इस क्रांति का केंद्र था, जहां एक पूज्य संन्यासी बाबा अपने रथ पर आते थे और लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए प्रेरित करते थे। यह एक जंगली इलाका हुआ करता था, जहां उन्होंने ग्रामीणों की मदद से एक शिव मंदिर की स्थापना की और लोगों को सनातन धर्म की शिक्षाएं देते थे। कभी-कभी वे कई दिनों के लिए गायब हो जाते थे और अचानक प्रकट होकर स्थानीय लोगों को देश में अंग्रेजों के खिलाफ चल रहे भीषण संघर्ष के बारे में बताते थे। कई बार ब्रिटिश पुलिस उनके बारे में पूछताछ करती थी, लेकिन गाँव वाले उन्हें कभी कोई जानकारी नहीं देते थे। जब उन्हें पता चला कि संन्यासी भारत के लिए संघर्ष करते हैं, तो उनके प्रति उनके हृदय में और भी सम्मान बढ़ गया और वे उनकी हरसम्भव मदद करते थे। संन्यासी की मृत्यु कब, कैसे और कहां हुई, यह सभी को पता नहीं है। उनकी याद में ग्रामीणों ने एक मंदिर बनवाया और वहाँ उनकी मूर्ति स्थापित की। हर साल, आज भी इस स्थान पर आश्विन महीने की पूर्णिमा पर वार्षिक मेला लगता है। इसमें आस-पास के दर्जनों गांवों के लोग भाग लेते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि यह आंदोलन लोगों के दिलों में कितना गहरा था और आज भी उतना ही गहरा है।
काशी और गोकुल में साधु-संन्यासियों द्वारा लड़ी गई पिछली लड़ाइयों और इस आंदोलन में अंतर यह है कि पिछली लड़ाइयां बर्बर लोगों से सनातन संस्कृति, पवित्र धर्म की रक्षा के लिए थीं। यह आंदोलन पूरी तरह से मातृभूमि की रक्षा के लिए था। पिछली लड़ाइयों में नारे भी धार्मिक थे जैसे 'हर हर महादेव'। लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ संन्यासी आंदोलन का नारा था 'ओम वंदेमातरम'।
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